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» » ज़हीर रहमती (दिल के पन्ने ) Zaheer Rahamati (Dil ke Panne )





इशारे मुद्दतों से कर रहा है
अभी तक साफ़ कहते डर रहा है

बचाना चाहता है वो सभी को
बहुत मरने की कोशिश कर रहा है

समंदर तक रसाई के लिए वो
ज़माने भर का पानी भर रहा है

कहीं कुछ है पुराने ख़्वाब जैसा
मेरी आँखों से ज़ालिम डर रहा है

ज़माने भर को है उम्मीद उसी से
वो ना-उम्मीद ऐसा कर रहा है



ख़ुशी से अपना घर आबाद कर के
बहुत रोएँगे तुम को याद कर के

ख़याल ओ ख़्वाब भी हैं सर झुकाए
गुलामी बख़्श दी आज़ाद कर के

जो कहने के लिए ही आबरू थी
वो इज़्ज़त भी गई फ़रियाद कर के

परिंदे सर पे घर रक्खे हुए हैं
मुझे छोड़ेंगे ये सय्याद कर के

यहाँ वैसे भी क्या आबाद रहता
ये धड़का तो गया बर्बाद कर के

कहाँ हम-दर्दियों की दाद मिलती
बहुत अच्छे रहे बे-दाद कर के

उसे भी क्या पता था हाल अपना
तड़पता है सितम ईजाद कर



पानी पानी रहते हैं
ख़ामोशी से बहते हैं

मेरी आँख के तारे भी
जलते बुझते रहते हैं

बेचारे मासूम दिए
दुख साँसों का सहते हैं

जिस की कुछ ताबीर न हो
ख़्वाब उसी को कहते हैं

अपनों की हम-दर्दी से
दुश्मन भी ख़ुश रहते हैं

मस्जिद भी कुछ दूर नहीं
वो भी पास ही रहते हैं



ज़र्द गुलाबों की ख़ातिर भी रोता है
कौन यहाँ पर मैले कपड़े धोता है

जिस के दिल में हरयाली सी होती है
सब के सर का बोझ वही तो ढ़ोता है

सतही लोगों में गहराई होती है
ये डूबे तो पानी गहरा होता है

सदियों में कोई एक मोहब्बत होती है
बाक़ी तो सब खेल तमाशा होता है

दुख होता है वक़्त-ए-रवाँ के ठहरने से
ख़ुश होने को वही बहाना होता है

शरमाते रहते हैं गहरे लोग सभी
दरिया भी तो पानी पानी होता है

नूर टपकता है ज़ालिम के चेहरे से
देखो तो लगता है कोई सोता है



बहुत कुछ वस्ल के इमकान होते
शरारत करते हम शैतान होते

सिमट आई है इक कमरे में दुनिया
तो बच्चे किस तरह नादान होते

किसी दिन उक़दा-ए-मुश्किल भी खुलता
कभी हम पर भी तुम आसान होते

ख़ता से मुँह छुपाए फिर रहे हैं
फ़रिश्ते बन गए इंसान होते

हर इक दम जाँ निकाली जा रही है
हम इक दम से कहाँ बे-जान होते

About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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