अगर इंसान की उम्मीद ही दम तोड़ जाती है
तो अक्सर आरज़ू-ए-ज़ीस्त भी दम तोड़ जाती है
मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
यहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है
जो आ कर कोई पत्ता भी मेरी खिड़्की से ट्कराये
मेरे कमरे में छाई ख़ामुशी दम तोड़ जाती है
जहाँ से दोस्ती में फ़ायदा-नुक्सान हो शामिल
हक़ीकत में वहीं पे दोस्ती दम तोड़ जाती है
मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
हंस के मिलते हैं भले दिल में चुभन रखते हैं
हम से कुछ लोग मोहब्बत का चलन रखते हैं
पाँव थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं
[मुदावा=Cure]
ठीक हो जाओगे कहते हुए मुंह फेर लिया
हाय! क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं
दौर-ए-पस्ती है सबा! वरना तुझे बतलाते;
अपनी परवाज़ में हम कितने गगन रखते हैं
पस्ती=Lowest Point
हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे नसीम
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं
रात जब ढलने को होती है तो घबराता है दिल
दिन निकलने के तसव्वुर से ही डर जाता है दिल
उम्र का बाक़ी सफ़र भी यूँ ही तय हो जायेगा
दिल को समझाता हूँ मैं और मुझको समझाता है दिल
किस तरह ज़िन्दा हूँ आखिर सोचने लगता हूँ मैं
जब कभी तनहाई मेँ ज़ख्मों को दिखलाता है दिल
वक्त के मूजिब यहाँ चेहरे बदल लेते हैं लोग
लाख समझाता हूँ लेकिन कब समझ पाता है दिल
तुम खुशी मेरे लिये लाये हो लेकिन 'नसीम'
अब ख़ुशी की बात भी मुश्किल से कह पाता है दिल
क्या सीरत, क्या सूरत थी
माँ ममता की मूरत थी
पाँव छुए और काम हुए
अम्माँ एक महूरत थी
बस्ती भर के दुख सुख में
माँ एक अहम ज़रूरत थी
उनसे भी था प्यार उसे
उनसे जिन्हें क़दूरत थी
सच कहते हैं माँ हमको
तेरी बहुत ज़रूरत
जो बरसाते लिखीं थीं बदलियों पर
उतर आयीं छतों पर छजलियों पर
जलाया हमने ख़ुद अपना नशेमन
नहीं इल्ज़ाम कोई बिजलियों पर
भले इंसान अब गिनती के होंगे
जिन्हें चाहो तो गिन लो उंगलियों पर
बहुत भूखा है ये मजदूर देखो
न मारो ठोंकरें यूं पसलियों पर
'नसीम' इस दौर में मुमकिन नहीं है
ग़ज़ल कहना गुलों पर तितलियों पर
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