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» » आलम खुर्शीद (दिल के पन्ने ) Aalam Khurshid (Dil ke Panne )




हमारे सर प ही वक़्त की तलवार गिरती है
कभी छत बैठ जाती है, कभी दीवार गिरती है

पसन्द आई नहीं बिजली को भी तक़सीम आँगन की
कभी इस पार गिरती है , कभी उस पार गिरती है

क़लम होने का ख़तरा है अगर मैं सर उठता हूँ
जो गर्दन को झुकाऊँ तो मेरी दस्तार गिरती है

मैं अपने दस्त ओ बाज़ू पर भरोसा क्यों नहीं करता
हमेशा नाख़ुदा के हाथ से पतवार गिरती है

शराफ़त को ठिकाना ही कहीं मिलता नहीं है क्या
मेरी दहलीज़ पर आकर वो क्यों हर बार गिरती है

वो अमृत के जो झरने थे हुए हैं खुश्क क्यों आलम
अब उस पर्वत की छोटी से लहू की धार गिरती है



हमेशा दिल में रहता है, कभी गोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता

कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिनको कभी धोया नहीं जाता

बहुत हँसने कि आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता

अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हरदम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता

ज़रा सोचो ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता

न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अहले दिल से दिल का बोझ भी ढोया नहीं जाता


अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं

जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है, खा लेते हैं

क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं

रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं

पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल ओ पर कटवा लेते हैं

सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं

याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं

औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम आलम
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं


एक अजब सी दुनिया देखा करता था
दिन में भी मैं सपना देखा करता था

एक ख्यालाबाद था मेरे दिल में भी
खुद को मैं शहजादा देखा करता था

सब्ज़ परी का उड़नखटोला हर लम्हे
अपनी जानिब आता देखा करता था

उड़ जाता था रूप बदलकर चिड़ियों के
जंगल, सेहरा, दरिया देखा करता था

हीरे जैसा लगता था इक-इक कंकर
हर मिट्टी में सोना देखा करता था

कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानो में
हर सेहरा में दरिया देखा करता था

हर जानिब हरियाली थी, ख़ुशहाली थी
हर चेहरे को हँसता देखा करता था

बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था

आँख खुली तो सारे मंज़र ग़ायब हैं
बंद आँखों से क्या-क्या देखा करता था


क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे
यूँ किसी के साथ रहकर हम जुदा रहने लगे

किस भरोसे पर किसी से आश्नाई कीजिये
आशना चेहरे भी तो नाआशना रहने लगे

हर सदा ख़ाली मकानों से पलट आने लगी
क्या पता अब किस जगह अहलेवफ़ा रहने लगे

रंग ओ रौगन बाम ओ दर के उड़ ही जाते हैं जनाब
जब किसी के घर में कोई दूसरा रहने लगे

हिज्र कि लज़्ज़त जरा उस के मकीं से पूछिये
हर घड़ी जिस घर का दरवाज़ा खुला रहने लगे

इश्क़ में तहजीब के हैं और ही कुछ सिलसिले
तुझ से हो कर हम खफ़ा, खुद से खफ़ा रहने लगे

फिर पुरानी याद कोई दिल में यूँ रहने लगी
इक खंडहर में जिस तरह जलता दिया रहने लगे

आसमाँ से चाँद उतरेगा भला क्यों ख़ाक पर
तुम भी आलम वाहमों में मुब्तला रहने लगे


तोड़ के इसको वर्षो रोना होता है
दिल शीशे का एक खिलौना होता है

महफ़िल में सब हँसते-गाते रहते है
तन्हाई में रोना-धोना होता है

कोई जहाँ से रोज़ पुकारा करता है
हर दिल में इक ऐसा कोना होता है

बेमतलब कि चालाकी हम करते हैं
हो जाता है जो भी होना होता है

दुनिया हासिल करने वालों से पूछो
इस चक्कर में क्या-क्या खोना होता है

सुनता हूँ उनको भी नींद नहीं आती
जिनके घर में चांदी-सोना होता है

खुद ही अपनी शाखें काट रहे हैं हम
क्या बस्ती में जादू-टोना होता है

काँटे-वाँटे चुभते रहते हैं आलम
लेकिन हम को फूल पिरोना होता है



देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैं ने कैसे पार किया आसानी से

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से

हर कमरे से धूप, हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है मनमानी से

अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से

दिल पागल है रोज़ पशीमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से

अपना फ़र्ज़ निभाना एक इबादत है
आलम हम ने सीखा इक जापानी से



नींद पलकों में धरी रहती थी
जब ख़यालों में परी रहती थी

ख़्वाब जब तक थे मेरी आंखों में
शाख़े- उम्मीद हरी रहती थी

एक दरिया था तेरी यादों का
दिल के सेहरा में तरी रहती थी

कोई चिड़िया थी मेरे अंदर भी
जो हर इक ग़म से बरी रहती थी

हैरती अब हैं सभी पैमाने
ये सुराही तो भरी रहती थी

कितने पैबन्द नज़र आते हैं
जिन लिबासों में ज़री रहती थी

एक आलम था मेरे क़दमों में
पास जादू की दरी रहती थी



मिल के रहने की ज़रूरत ही भुला दी गई क्या
याँ मुहब्बत की रिवायत थी मिटा दी गई क्या

बेनिशाँ कब के हुए सारे पुराने नक़शे
और बेहतर कोई तस्वीर बना दी गई क्या

अब के दरिया में नज़र आती है सुर्ख़ी कैसी
बहते पानी में कोई चीज़ मिला दी गई क्या

एक बन्दे की हुकूमत है ख़ुदाई सारी
सारी दुनिया में मुनादी ये करा दी गई क्या

मुँह उठाए चले आते हैं अन्धेरों के सफ़ीर
वो जो इक रस्म-ए-चिरागाँ थी उठा दी गई क्या

मैं अन्धेरों में भटकता हूँ तो हैरत कैसी
मेरे रस्ते में कोई शम्मा जला दी गई क्या


About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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