चाहिए इश्क़ में इस तरह फ़ना हो जाना
जिस तरह आँख उठे महव-ए-अदा हो जाना
किसी माशूक़ का आशिक़ से ख़फ़ा हो जाना
रूह का जिस्म से गोया है जुदा हो जाना
मौत ही आप के बीमार की क़िस्मत में न थी
वरना कब ज़हर का मुमकिन था दवा हो जाना
अपने पहलू में तुझे देख के हैरत है मुझे
ख़र्क़-ए-आदत है तेरा वादा वफ़ा हो जाना
वक़त-ए-इश्क़ कहाँ जब ये तलव्वुन हो वहाँ
कभी राज़ी कभी आशिक़ से ख़फ़ा हो जाना
जब मुलाक़ात हुई तुम से तो तकरार हुई
ऐसे मिलने से तो बेहतर है जुदा हो जाना
छेड़ कुछ हो के न हो बात हुई हो के न हो
बैठे बैठे उन्हें आता है ख़फ़ा हो जाना
मुझ से फिर जाए जो दुनिया तो बला से फिर जाए
तू न ऐ आह ज़माने की हवा हो जाना
‘अहसन’ अच्छा है रहे माल-ए-अरब पेश-ए-अरब
दे के दिल तुम न गिरफ़्तार-ए-बला हो जाना.
ऐ दिल न सुन अफ़साना किसी शोख़ हसीं का
ना-आक़ेबत-अँदेश रहेगा न कहीं का
दुनिया का रहा है दिल-ए-नाकाम न दीं का
इस इश्क़-ए-बद-अंजाम ने रक्खा न कहीं का
हैं ताक में इक शोख़ की दुज़-दीदा निगाहें
अल्लाह निगह-बान है अब जान-ए-हज़ीं का
हालत दिल-ए-बे-ताब की देखी नहीं जाती
बेहतर है के हो जाए ये पैवंद ज़मीं का
गो क़द्र वहाँ ख़ाक भी होती नहीं मेरी
हर वक़्त तसव्वुर है मगर दिल में वहीं का
हर आशिक़-ए-जाँ-बाज़ को डर ऐ सितम-आरा
तलवार से बढ़ कर है तेरी चीन-ए-जबीं का
कुछ सख़्ती-ए-दुनिया का मुझे ग़म नहीं ‘अहसन’
खटका है मगर दिल को दम-ए-बाज़-पसीं का
ना-काम हैं असर से दुआएँ दुआ से हम
मजबूर हैं के लड़ नहीं सकते ख़ुदा से हम
होंगे न मुनहरिफ़ कभी अहद-ए-वफ़ा से हम
चाहेंगे हश्र में भी बुतों को ख़ुदा से हम
चाहोगे तुम न हम को न छूटोगे हम से तुम
मजबूर तुम जफ़ा से हुए हो वफ़ा से हम
आता नहीं नज़र कोई पहलू बचाव का
क्यूँकर बचाएँ दिल तेरे तीर-ए-अदा से हम
तुम से बिगाड़ इश्क़ में होना अजब नहीं
अंजाम जानते थे यही इब्तिदा से हम
इल्ज़ाम उन के इश्क़ का ‘अहसन’ ग़लत नहीं
नादिम तमाम उम्र रहे इस ख़ता से हम
मुतमइन अपने यक़ीन पर अगर इंसाँ हो जाए
सौ हिजाबों में जो पिंहाँ है नुमायाँ हो जाए
इस तरह क़ुर्ब तेरा और भी आसाँ हो जाए
मेरा एक एक नफ़स काश रग-ए-जाँ हो जाए
वो कभी सहन-ए-चमन में जो ख़िरामाँ हो जाए
ग़ुँचा बालीदा हो इतना के गुलिस्ताँ हो जाए
इश्क़ का कोई नतीजा तो हो अच्छा के बुरा
ज़ीस्त मुश्किल है तो मरना मेरा आसाँ हो जाए
जान ले नाज़ अगर मर्तबा-ए-इज्ज़-ओ-नियाज़
हुस्न सौ जान से ख़ुद इश्क़ का ख़्वाहाँ हो जाए
मेरी ही दम से है आबाद जुनूँ-ख़ाना-ए-इश्क़
मैं न हूँ क़ैद तो बर्बादी-ए-ज़िंदाँ हो जाए
है तेरे हुस्न का नज़्ज़ारा वो हैरत-अफ़ज़ा
देख ले चश्म-ए-तसव्वुर भी तो हैराँ हो जाए
दीद हो बात न हो आँख मिले दिल न मिले
एक दिन कोई तो पूरा मेरा अरमाँ हो जाए
मैं अगर अश्क-ए-नदामत के जवाहिर भर लूँ
तोश-ए-हश्र मेरा गोशा-ए-दामाँ हो जाए
ले के दिल तर्क-ए-जफ़ा पर नहीं राज़ी तो मुझे
है ये मंज़ूर के वो जान का ख़्वाहाँ हो जाए
अपनी महफ़िल में बिठा लो न सुनो कुछ न कहो
कम से कम एक दिन ‘अहसन’ पे ये अहसाँ हो जाए.
No comments: