जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना
ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना
तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना
अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना
सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना
ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना
हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना
हम सुनायें तो कहानी और है
यार लोगों की जुबानी और है
चारागर रोते हैं ताज़ा ज़ख्म को
दिल की बीमारी पुरानी और है
जो कहा हमने वो मजमूँ और था
तर्जुमाँ की तर्जुमानी और है
है बिसाते-दिल लहू की एक बूंद
चश्मे-पुर-खूं की रवानी और है
नामाबर को कुछ भी हम पैगाम दें
दास्ताँ उसने सुनानी और है
आबे-जमजम दोस्त लायें हैं अबस
हम जो पीते हैं वो पानी और है
सब कयामत कामतों को देख लो
क्या मेरे जानाँ का सानी और है
अहले-दिल के अन्जुमन में आ कभी
उसकी दुनिया यार जानी और है
शाइरी करती है इक दुनिया फ़राज़
पर तेरी सादा बयानी और है
संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया
जब कि खुद पत्थर को बुत, बुत को खुदा मैंने किया
कैसे नामानूस लफ़्ज़ों कि कहानी था वो शख्स
उसको कितनी मुश्किलों से तर्जुमा मैंने किया
वो मेरी पहली मोहब्बत, वो मेरी पहली शिकस्त
फिर तो पैमाने-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया
हो सजावारे-सजा क्यों जब मुकद्दर में मेरे
जो भी उस जाने-जहाँ ने लिख दिया, मैंने किया
वो ठहरता क्या कि गुजरा तक नहीं जिसके लिया
घर तो घर, हर रास्ता, आरास्ता मैंने किया
मुझपे अपना जुर्म साबित हो न हो लेकिन मैंने
लोग कहते हैं कि उसको बेवफ़ा मैंने किया
गनीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
कि हार मान ली, लेकिन मदद नहीं माँगी
हजार शुक्र कि हम अहले-हर्फ़-जिन्दा ने
मुजाविराने-अदब से सनद नहीं माँगी
बहुत है लम्हा-ए-मौजूद का शरफ़ भी मुझे
सो अपने फ़न से बकाये-अबद नहीं माँगी
क़बूल वो जिसे करता वो इल्तिजा नहीं की
दुआ जो वो न करे मुस्तरद, नहीं माँगी
मैं अपने जाम-ए-सद-चाक से बहुत खुश हूँ
कभी अबा-ओ-क़बा-ए-ख़िरद नहीं माँगी
शहीद जिस्म सलामत उठाये जाते हैं
तभी तो गोरकनों से लहद नहीं माँगी
मैं सर-बरहना रहा फिर भी सर कशीदा रहा
कभी कुलाह से तौक़ीद-ए- सर नहीं माँगी
अता-ए-दर्द में वो भी नहीं था दिल का ग़रीब
`फ़राज' मैंने भी बख़्शिश में हद नहीं माँगी
अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं
मुझको मालूम ना था ख्वाब भी मर जाते हैं
जाने किस हाल में हम हैं कि हमें देख के सब
एक पल के लिये रुकते हैं गुजर जाते हैं
साकिया तूने तो मयखाने का ये हाल किया
रिन्द अब मोहतसिबे-शहर के गुण गाते हैं
ताना-ए-नशा ना दो सबको कि कुछ सोख्त-जाँ
शिद्दते-तिश्नालबी से भी बहक जाते हैं
जैसे तजदीदे-तअल्लुक की भी रुत हो कोई
ज़ख्म भरते हैं तो गम-ख्वार भी आ जाते हैं
एहतियात अहले-मोहब्बत कि इसी शहर में लोग
गुल-बदस्त आते हैं और पा-ब-रसन जाते हैं
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