
आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
तेरे ध्यान में सारा सावन भीग गया
ख़ुश्क महाज़ो बढ़ के मुझे सलामी दो
मेरे लहू की छींटों से रन भीग गया
तुम ने मय पी चूर चूर मैं नश्शे में
किस ने निचोड़ा किस का दामन भीग गया
क्या नमनाक हँसी दीवार-ओ-दर पर थी
बचा खुचा सब रंग ओ रोग़न भीग गया
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
बिन होली खेले ही साजन भीग गया
बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
अजीब ख़ुशबू उदासियों की बिखर गई है
जगाओ मत रिसते ख़्वाबों की रत-जगी थकन को
कि धूप दालान से कभी की उतर गई है
फ़सील-ए-सर को बचाए रखता है वो अभी तक
ज़मीं की पस्ती तो रेशे रेशे में भर गई है
न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
दबी दबाई सी चोट इक इक उभर गई है
वो रात जिस में ज़वाल-ए-जाँ का ख़तर नहीं था
वो रात गहरे समुंदरों में उतर गई है
बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना
गुज़र चुकने पे भी वो शाम-ए-रहलत देखते रहना
धनक की बारिशें बरफ़ाब शहरों पर नहीं होतीं
यहाँ फूलों का रस्ता उम्र भर मत देखते रहना
किताबों की तहों में ढूँढना ना-दीदा अश्या का
पलट कर फिर कोई ख़ाली इबारत देखते रहना
हुजूम-ए-शहर के सन्नाटे में गुम-सुम वो टीला सा
उसी को आते जाते बे-ज़रूरत देखते रहना
जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
फ़रिश्तों जैसी बस मेरी इबादत देखते रहना
'मुसव्विर' कुछ न कहने का ये दुख भी सख़्त ज़ालिम है
तलब कर लेगी लफ़्ज़ों की अदालत देखते रहना
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
न जाने किस के थे वो ख़द्द-ओ-ख़ाल सोचते रहे
जो रू-नुमा नहीं हुआ वो मरहला डरा गया
मिलेंगे कैसे उस से माह-ओ-साल सोचते रहे
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