कविता 1...
दे रहे हैं वो चुनौती मेरे विवेक को
होना चाह रहे हैं वो
मेरे मन मस्तिक पर हावी
मेरी मौनता की मज़बूरी पर
वो मुखर होकर कर रहे हैं प्रहार
ताकि मिला सकू मैं उनकी हाँ मैं हाँ ना मैं ना
आखिर क्यों नजर आ रहा है उन्हें मेरा कद बौना
फैसलों फासला निर्रया के मामलात मैं
वह समझ रहें हैं मेरी मौनता को अपरिपक्त
शायद वो समझ बैठे हैं मेरी मौनता को मज़बूरी
मौनता के निकाल लिए हैं उन्होंने अपने अपने हिसाब से
अनेकानेक अर्थ अपने शब्दकोष से
मेरे विवेक पर हो जाना चाहते हैं वो हाबी
मेरी मौनता का सहारा लेकर
शायद वो नहीं जानते कि परमाणु तब तक हैं शान्त
जब तक उनके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं कि जाती
गर उनकी शांति से खेलोगे
तो नागाशाकी और हिरोसिमा के रूप मैं
काले पन्ने आज भी विश्व इतिहास मैं दर्ज हैं ..............
कविता 2 ..........
मेरे पिताजी का मानना था ,
जब तुम्हारा समय बुरा हो
जब तुम संक्रमण काल से गुजर रहे हो
या जब तुम्हारा मन मस्तिक काम नहीं कर रहा हो
तो उस समय चिंतन करो ,मनन करो ,शांत रहो
कोई वक्तव्य न दो
न ही जीवन का अहम् फैसला लो
उनका अपना मत था ,
बुरे समय पर व्यक्ति उचित फैसला नहीं ले पाता,
लिहाजा जब तक बुरा समय नहीं बीत जाये ,
तब तक फैसलों से बचना चाहिए ,
फैसले फासलो का रुख तय करते हैं ,
मन और मानव के बीच,
लिहाजा मैं भी अपने पिताजी की बात का अनुसरण कर रहा हु ,
नहीं कोई भी फैसला ले पा रहा हूँ,
वर्तमान परिस्थितियों मैं ,
और बुरे समय के बीतने कि प्रतिच्छा मैं ,
प्रतीछारत हूँ ..........
कविता ...3........
दोनों की शर्तो के बीच आदमी खड़ा होता है ,
दोराहे पर ,समान दुरी पर ,
आदमी का अंतस चलता है, झुका दे मेरी तरफ फैसला ,उचित अनुचित ,
गर मेरी माफिक होगा फैसले का रुख ,
तो सम्बन्धो का सिलसिला यथावत चलेगा ,
गर नहीं हो पायेगा मेरे समर्थन मैं मेरे माफिक ,
तो फासला दिन पर दिन बढ़ता ही जायेगा ,
हो जायेंगी शर्तें दर शर्तें हावी ,
वैचारिक मतभेद , मतभेद हो जायेंगे ,
समस्त रिश्तों नातों के मध्य ,
खिंच जायेंगी अघोषित सीमा रेखा दुरी ,अनंतकाल के लिए ,
फैसला मेरे हित मैं रहना चाहिए क्यों चाहते हो तुम ,
क्यों चाहते हो अपनी मनमानी ,क्यों लगा रहे हो तुम ,
उस व्यक्ति के विवेक पर प्रश्नवाचक चिन्ह ,
आखिर क्यों कर रहे हो तुम अपनी स्वतंत्रता के मध्य ,
सामने वाले कि स्वतंत्रता को बाधित अपने प्रयोजन शर्तो से,
तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारे निर्यण से हो रही है,
तुम्हारे सामने वाले कि स्वतंत्रता बाधित ,
लेने दो उसे भी अपने विवेक से निर्यण ,फैसला ,
क्यों आखिर क्यों कर रहे हो उसे बाधित अपने निर्यण से .....
कविता ....4
अब हो गया हूँ मैं कितना कसैला विषैला अव्यवहारिक पता नही क्या क्या
अपनी बेबाक जुबान के कारण ही
पता नही मेरी जुबान ने ही खो दिये हैं न जाने मेरे कितने प्रगाढ़ रिश्ते नाते
मरहूम कर दिया है मेरी जुबान ने कितने रिश्ते से नातों से अपनों से
पर विवशता का आलम ये है कि बराबर खुलती जा रही है बेबाकी के साथ
अब मेरे अंदर निकल आये है अनेकानेक सुल
विरोध के सुर चारो ओर उठ रहे हैं जिसको जितना मनाना चाहता हूँ
वह उतना ही बड़ा शिकायती पुलिंदा लेकर बेठा हे अपने मन मस्तिक मैं
वह चाहता हे कि मैं किसी फैसले मैं अपने विवेक का इस्तेमाल न करू
बस मेरी और मेरी शर्तों पर हस्ताछर कर दूँ
आखिर मित्रो कैसे संभव है कि मैं अपने विवेक का इस्तेमाल ना करूं
और उनकी थोपी शर्तो पर अपनी सहमति की मोहर लगा दूँ
हाँ ये सच हे वह कुछ अन्तराल के लिए अपने आप मैं
अपनी सफलता से खुश तो होंगे परन्तु सवाल ये है
मैं उनकी कितनी शर्तो पर अपनी सहमति कि मोहर लगा सकता हूँ
आखिर कभी तो मुझे अपनी सहमति पर विराम देना होगा
आखिर क्यों चाहते हैं सभी कि मैं उनकी समस्त तार्किक अतार्किक
व्यावहारिक अव्यवहारिक शर्तो को मानता रहूँ
और वो अपने अपनापन का प्रमाण पत्र मुझे सोंपते रहें
नही तो वो सौंप देंगे अपने विरोध का पुलिंदा
जैसे मेरा जीवन मेरी सांसें चल रही हों उनके रहमों करम पर
अब जब नही मन रहा हूँ मैं उनकी शर्तो को उनकी घोषित नियमावली को
तो उन्हें मेरे अंदर मैं दिखाई पड़ रहे हैं शूल ही शूल सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ
और अब तो मैंने अपने अंतर्मन मैं मान लिया है
नहीं करूंगा उनकी शर्तो से समझोता वैसे भी बुरा आदमी बुरा होता है
कविता....5
हाँ हमें राजा चाहिए अपनी स्वतंत्रता को बाधित करने को
हम नहीं जी सकते बिना अंकुस बिना नेत्रव्य
हाँ हमें राजा चाहिए जो हांक सके हमें निरंतर रेबड़ कि भांति
हम जीवन मैं स्वतंत्र रहना ही नहीं चाहते
आदेश टिप्पड़ी हमारे जीवन का हैं अहम हिस्सा
हम सौंप देते हैं अपनी सत्ता स्वतंत्रता अपने हाथों से राजा के रूप मैं
जो बना सके हमारे लिए नियम कानून
फिर उसी सौंपी सत्ता के बल पर हो सके हमारे उपर हावी शाशित
हाँ हमें राजा चाहिए
हमारी अपरिप्क्ता के रूप मैं हमारी अछ्मता के रूप मैं
जिन्हें हमने खुद व् खुद सौप दी है अपनी स्वतंत्रता कि चावी अपने हाथ से
हाँ हमें राजा चाहिए
हमारी शिराओं मैं बह रहा है गुलामी का खून मानसिकता कि संकीर्ण सोच
और उसी के जीने के हम हो गये हैं अभयस्त
विरासत मैं देते जा रहे हैं हम परम्परागत रूप से नेतव्य कि गुलामी
आने वाली पीढियों को क्रमशःतुम भी ढ़ोयो हमारे नौनिहालों
उस नेतव्य का दंस उस गुलामी को जिसे झेलते रहे हैं हम परम्परागत
विरासत के रूप मैं क्योंकि हमारी शिराओ मैं बह रहा है
हमारी मानसिक गुलामी का खून ओढ़लो तुम भी वही लवादा क्योंकि
हाँ हमें राजा चाहिए
जिस तरह सौंप दी हमने परम्परागत रूप से थाली मैं रखकर सत्ता
तुम भी करो उसी बात का अनुसरण क्योंकि
हाँ हमें राजा चाहिये....
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