Header ads

» » आले अहमद 'सरूर' (दिल के पन्ने ) Aale Ahamad sarur (Dil ke Panne )




वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
दश्त में ख़ाक उड़ाते रहे घर भी न मिला

ख़स ओ ख़ाशाक से निस्बत थी तो होना था यही
ढूँडने निकले थे शोले को शरर भी न मिला

न पुरानों से निभी और न नए साथ चले
दिल उधर भी न मिला और इधर भी न मिला

धूप सी धूप में इक उम्र कटी है अपनी
दश्त ऐसा के जहाँ कोई शजर भी न मिला

कोई दोनों में कहीं रब्त निहाँ है शायद
बुत-कदा छूटा तो अल्लाह का घर भी न मिला

हाथ उट्ठे थे क़दम फिर भी बढ़ाया न गया
क्या तअज्जुब जो दुआओं में असर भी न मिला

बज़्म की बज़्म हुई रात के जादू का शिकार
कोई दिल-दादा-ए-अफ़सून-ए-सहर भी न मिला



सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र क्या था
हमारे पास ब-जुज़ दौलत-ए-नज़र क्या था

लबों से यूँ तो बरसते थे प्यार के नग़मे
मगर निगाहों में यारों के नीश्तर क्या था

ये ज़ुल्मतों के परस्तार क्या ख़बर होते
मेरी नवा में ब-जुज़ मुज़्दा-ए-सहर क्या था

हर एक अब्र में है इक लकीर चाँदी की
वगरना अपनी दुआओं में भी असर क्या था

हज़ार ख़्वाब लुटे ख़्वाब देखना न गया
यही था अपना मुक़द्दर तो फिर मफ़र क्या था

ग़ुरूर अँधेरे का तोड़ा उसी से हार गया
नुमूद एक शरर की थी या बशर क्या था

कोई ख़लिश जो मुक़द्दर थी उम्र भर न गई
इलाज ऐसे मरीज़ों का चारा-गर क्या था



ख़ुदा-परस्त मिले और न बुत-परस्त मिले
मिले जो लोग वो अपने नशे में मस्त मिले

कहीं ख़ुद अपनी दुरुस्ती का दुःख नहीं देखा
बहुत जहाँ की दुरुस्ती के बंदोबस्त मिले

कहीं तो ख़ाक-नशीं कुछ बुलंद भी होंगे
हज़ारों अपनी बुलंदी में कितने पस्त मिले

ये सहल फ़तह तो फीकी सी लग रही है मुझे
किसी अज़ीम मुहिम में कभी शिकस्त मिले

ये शाख़-ए-गुल की लचक भी पयाम रखती है
बसान-ए-तेग़ थे जो हम को हक़-परस्त मिले

सुना है चंद तही-दामानों में ज़र्फ़ तो था
'सुरूर' हम को तवंगर भी तंग-दस्त मिले



आज से पहले तेरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
मय बड़ी इफ़रात से थी फिर भी सर-शारी न थी

एक हम क़द्रों की पामाली से रहते थे मलूल
शुक्र है यारों को ऐसी कोई बीमारी न थी

ज़हन की परवाज़ हो या शौक़ की रामिश-गरी
कोई आज़ादी न थी जिस में गिरफ़्तारी न थी

जोश था हंगामा था महफ़िल में तेरी क्या न था
इक फ़क़त आदाब-ए-महफ़िल की निगह-दारी न थी

उन की महफ़िल में नज़र आए सभी शोला ब-कफ़
अपने दामन में मगर कोई भी चिंगारी न थी

कल इसी बस्ती में कुछ अहल-ए-वफ़ा होते तो थे
इस क़दर अहल-ए-हवस की गरम-बाज़ारी न थी

हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिल-दारी न थी

About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
«
Next
Newer Post
»
Previous
Older Post

No comments:

Leave a Reply