माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं
कैसे कहें के तेरे तलबगार हम नहीं
सींचा था जिस को ख़ूने तमन्ना से रात दिन
गुलशन में उस बहार के हक़दार हम नहीं
हमने तो अपने नक़्शे क़दम भी मिटा दिए
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं
यह भी नहीं के उठती नहीं हम पे उँगलियाँ
यह भी नहीं के साहबे किरदार हम नहीं
कहते हैं राहे इश्क़ में बढ़ते हुए क़दम
अब तुझसे दूर, मंज़िले दुशवार हम नहीं
जानें मुसाफ़िराने रहे - आरज़ू हमें
हैं संगे मील, राह की दीवार हम नहीं
पेशे-जबीने-इश्क़ उसी का है नक़्शे पा
उस के सिवा किसी के परस्तार हम नहीं
तुझको सोचा तो खो गईं आँखें
दिल का आईना हो गईं आँखें
ख़त का पढ़ना भी हो गया मुश्किल
सारा काग़ज़ भिगो गईं आँखें
कितना गहरा है इश्क़ का दरिया
उसकी तह में डुबो गईं आँखें
कोई जुगनू नहीं तसव्वुर का
कितनी वीरान हो गईं आँखें
दो दिलों को नज़र के धागे से
इक लड़ी में पिरो गईं आँखें
रात कितनी उदास बैठी है
चाँद निकला तो सो गईं आँखें
'नक़्श' आबाद क्या हुए सपने
और बरबाद हो गईं आँखें
अपनी भीगी हुई पलकों पे सजा लो मुझको
रिश्ताए-दर्द समझकर ही निभा लो मुझको
चूम लेते हो जिसे देख के तुम आईना
अपने चेहरे का वही अक्स बना लो मुझको
मैं हूँ महबूब अंधेरों का मुझे हैरत है
कैसे पहचान लिया तुमने उजालो मुझको
छाँओं भी दूँगा, दवाओं के भी काम आऊँगा
नीम का पौदा हूँ, आँगन में लगा लो मुझको
दोस्तों शीशे का सामान समझकर बरसों
तुमने बरता है बहुत अब तो संभालो मुझको
गए सूरज की तरह लौट के आ जाऊँगा
तुमसे मैं रूठ गया हूँ तो मनालो मुझको
एक आईना हूँ ऐ 'नक़्श' मैं पत्थर तो नहीं
टूट जाऊँगा न इस तरह उछालो मुझको
मैं दुनिया की हक़ीकत जानता हूँ
किसे मिलती है शोहरत जानता हूँ
मेरी पहचान है शेरो सुख़न से
मैं अपनी कद्रो-क़ीमत जानता हूँ
तेरी यादें हैं , शब बेदारियाँ हैं
है आँखों को शिकायत जानता हूं
मैं रुसवा हो गया हूँ शहर-भर में
मगर ! किसकी बदौलत जानता हूँ
ग़ज़ल फ़ूलों-सी, दिल सेहराओं जैसा
मैं अहले फ़न की हालत जानता हूँ
तड़प कर और तड़पाएगी मुझको
शबे-ग़म तेरी फ़ितरत जानता हूँ
सहर होने को है ऐसा लगे है
मैं सूरज की सियासत जानता हूँ
दिया है ‘नक़्श’ जो ग़म ज़िंदगी ने
उसे मै अपनी दौलत जानता हूँ
पलट कर देख़ लेना जब सदा दिल की सुनाई दे
मेरी आवाज़ में शायद मेरा चेहरा दिख़ाई दे
मुहब्बत रौशनी का एक लमहा है मगर चुप है
किसे शमए-तमन्ना दे किसे दाग़े जुदाई दे
चुभें आँख़ों में भी और रुह में भी दर्द की किरचें
मेरा दिल इस तरह तोड़ो के आईना बधाई दे
खनक उठें न पलकों पर कहीं जलते हुए आँसू
तुम इतना याद मत आओ के सन्नाटा दुहाई दे
रहेगा बन के बीनाई वो मुरझाई सी आँख़ों में
जो बूढ़े बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे
मेरे दामन को बुसअत दी है तूने दश्तो-दरिया की
मैं ख़ुश हूँ देने वाले, तू मुझे कतरा के राई दे
किसी को मख़मलीं बिस्तर पे भी मुश्किल से नींद आए
किसी को नक़्श दिल का चैन टूटी चारपाई दे
हम से पूछो कैसा है वो
शेर ग़ज़ल का लगता है वो
उन आँख़ों से मिल कर देख़ो
जिन आँख़ों में रहता है वो
आओ करें उस पेड़ से बातें
जंगल में भी तनहा है वो
चाहें भी तो हाथ न आए
तेज़ हवा का झोंका है वो
आया था जो बनके समंदर
साहिल साहिल प्यासा है वो
दुख़ में भी है चेहरा रौशन
मिट्टी में भी सोना है वो
‘नक़्श’ के बारे में सुनते हैं
रिश्तों का दीवाना है वो
कई ख्व़ाब मुस्कुराए सरे शाम बेख़ुदी में
मेरे लब पे आ गया था तेरा नाम बेख़ुदी में
तेरे गेसुओं का साया है के शामे-मैकदा है
तेरी आँख़ बन गई है मेरा जाम बेख़ुदी में
कई बार चाँद चमके तेरी नर्म आहटों के
कई बार जगमगाए दरो-बाम बेख़ुदी में
जिसे ढूँढ़ती रही हैं मेरी बेक़रार आँख़े
मेरे दिल ने पा लिया है वो मक़ाम बेख़ुदी में
वो ख़याल कौन-सा है के बना हुआ है पैकर
किसे ‘नक्श़’ कर रहा हूँ मैं सलाम बेख़ुदी में
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