बग़ैर बात कोई किसका दुख बँटाता है
वो जानता है मुझे इसलिए रुलाता है
है उसकी उम्र बहुत कम इसलिए शायद
वो लम्हे-लम्हे को जीता है गुनगुनाता है
मेरी तन्हाई मुझे हौंसला सा देती है
तन्हा चिराग़ हज़ारों दीये जलाता है
वो दूर हो के भी सबसे क़रीब है मेरे
मैं क्या बताऊँ कि क्या उससे मेरा नाता है
वो नम्र मिट्टी से बारिश में आज भी अक्सर
बना-बना के घरौंदों को ख़ुद मिटाता है
तू इतना कमज़ोर न हो
तेरे मन में चोर न हो
जग तुझको पत्थर समझे
इतना अधिक कठोर न हो
बस्ती हो या हो फिर वन
पैदा आदमख़ोर न हो
सब अपने हैं सब दुश्मन
बात न फैले, शोर न हो
सूरज तम से धुँधलाए
ऐसी कोई भोर न हो
अब नहीं है पहले जैसी बात उसकी चाल में
फिर से उलझी है नदी जलखुम्भियों के जाल में
जाग कर धागों से कोई काटता है अब कहाँ
प्यार के रंगीन अक्षर मखमली रूमाल में
अपने बूढ़े बाप का दुख जानती हैं बेटियाँ
इसलिए मर कर भी जी लेती हैं वो ससुराल में
बीज-मिट्टी-खाद की चिन्ता बिना हम चाहते
पेड़ से फल प्राप्त हो जाएँ हमें तत्काल में
तुमको पाकर खोना था
इक दिन तो ये होना था
किसकी बाँहों में ठहरा
चाँद ये जादू-टोना था
मुझसे तुमको मिलता क्या
जीवन भर का रोना था
तुम भी दिल यूँ समझाना
कोई ख्वाब सलोना था
तुम झुकते कितना झुकते
मेरा क़द ही बोना था
क्या है दिल में पता नहीं रहता
कुछ भी रुख़ पर लिखा नहीं रहता
अपनी मिट्टी को छोड़ देता है
पेड़ जो भी, हरा नहीं रहता
उम्र भर शोहरतों का सूरज भी
हाथ बांधे खड़ा नहीं रहता
पर्वतों की रुकावटों से कभी
कोई दरिया रुका नहीं रहता
आदमी क्या बग़ैर पानी के
आईना आईना नहीं रहता
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