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» » सागर त्रिपाठी (दिल के पन्ने ) Sagar Tripathi (Dil ke Panne )



हर शय पे ये दिल आता यूँ हर दिन भी नहीं है
इस दौर में अब इश्क़ तो मुमकिन भी नहीं है

कहने को ज़माने का ज़माना मेरा अपना
और उस पे सितम है कोई मोहसिन भी नहीं है

क्यों ख़ुद से ज़ियादा मुझे उस पर है भरोसा
जो शख़्स मेरे शह्र का साकिन भी नहीं है

जीने की हवस ने मुझे छोड़ा है जहाँ पर
डँसने के लिये उम्र की नागिन भी नहीं है

पढ़ ही न सके चेहरा-ए-हस्ती की इबारत
अब मेरी नज़र इतनी तो कमसिन भी नहीं है

महफ़ूज़ मेरे ज़ह्न में सदियों के हैं ख़ाके
हालाँकि मेरे कब्ज़े में एक छिन भी नहीं है

इस वासते मुंसिफ़ ने मेरी क़ैद बढ़ा दी
बेज़ुर्म भी हूँ और कोई जामिन भी नहीं है

कम अज़ कम एहतियातन, मैं वज़ू तो कर ही लेता हूँ,
कभी जो शेर पढ़ना हो, मुझे माँ के हवाले से।

सहम जाता है दिल, घर लौटने पर शाम को मेरा,
अगर दहलीज़ पर माँ, मुन्तज़िर मुझको नहीं मिलती~

करिश्मा है ये जन्नत का, मेरे घर पे उतर आना,
ज़इऱ्फी में भी अम्मा का, मेरे सीने से लग जाना।

मुसल्सल दो जहाँ की, नेमतों से मैं मुअत्तर हूँ,
अभी तक है बसी साँसों में, माँ के दूध की ख़ुश्बू~

मेरे चेहरे पे लिक्खी, हर इबादत को समझती है,
मगर माँ ने कभी स्कूल का, मुंह तक नहीं देखा~

जकड़ लेती है क़दमों को, ज़ईफ आँखों की वीरानी,
मैं जब भी गाँव से, परदेस जाने को निकलता हूँ।

मैं जब तक पेट भरकर, शाम को खाना नहीं खाता,
निवाला हल्क़ से नीचे, कभी माँ के नहीं जाता~

न जाने कौन सी मिट्टी से, माँ का जिस्म बनता है,
जो बच्चा छींक दे तो, माँ को खाँसी आने लगती है।

दिया जलने से पहले, शाम को घर लौट आता हूँ,
मुझे घर देखकर, आँखों में माँ की दीप जलते हैं~

मैं रोकर पूछता हूँ, माँ मुझे हँस कर बताती है,
मेरा बचपन में सिक्का, माँ के आँचल से चुरा लेना।

काम करती जा रही, माँ की दुआ है आज भी,
राह बनती जा रही, है भीड़ में पथराव में~

हर इक मुश्किल में, रहमत की घटायें काम आती हैं,
ब अल्फाज़े दिगर माँ की, दुआयें काम आती हैं~

गुज़रना भीड़ से हो या, सड़क भी पार करनी हो,
अभी भी आदतन माँ, हाथ मेरा थाम लेती है।

मैं डर से अपनी पलकों को, झपकने ही नहीं देता,
कहीं बीमार माँ की, साँस का चलना न रुक जाये।

ख़ुदा तेरी इबादत की, मुझे फुर्सत नहीं मिलती,
मैं माँ की आख़िरी साँसों, की गिनती में लगा जो हूँ~

मुझे स्कूल माँ बचपन में, लेकर रोज़ जाती थी,
किसी दिन सोचता हूँ, माँ को मैं मन्दिर घुमा लाऊँ~

मैं इकसठ साल का बूढ़ा, कभी जब गाँव जाता हूँ,
मेरी आँखों में माँ, सोते समय काजल लगाती है~

हमें माँ की क़सम खाने में, कोई डर नहीं लगता,
किसी की माँ को, बेटे की क़सम खाते नहीं देखा~

कमाकर इतने सिक्के भी, तो माँ को दे नहीं पाया,
कि जितने सिक्कों से, माँ ने मेरा सदक़ा उतारा है~

मेरी साँसों की ख़ातिर, माँ ने इतने ग़म उठाये हैं,
इबादत के सिवा भरपाई, जिनकी कर नहीं सकता~

क़ज़ा इस वक्त मेरी राह, से बचकर ही निकलेगी,
सफ़र से क़ब्ल माँ ने जो, मेरा सदक़ा उतारा है~

तसव्वुर में भी माँ का, अक्स जब आँखों में आता है,
करिश्मा है कि तौफ़ीक़े, इबादत जाग जाती है~

किया फिर मुल्तवी अम्मा ने अपना शह्र का जाना,
बियाई गाय को कुछ दिन, हरा चारा खिलाना है~

है दिखता साफ़ ला़फ़ानी असर माँ की दुआओं में,
ख़ुदा की बरकतें नाती नवासों तक पहुँचती हैं~

आज तक आया न सपने में भी जन्नत का ख़्याल,
माँ के क़दमों में मिले `सागर' को जन्नत के मज़े~

बस सर पे सलामत रहे माँ का घना आँचल,
सूरज की तमाज़त से भला कौन डरे है~

मैं सोते वक़्त बचपन में अगर करवट बदलता था,
तो माँ मुँह में मेरे बादाम मिश्री डाल देती थी~

ज़ईफ़ जिस्म के काँधे पे काएनात लिए,
देख क़दमों तले जन्नत लिए माँ आये है~

सुना है माँ के कदमों के तले जन्नत सँवरती है,
उसी जन्नत के काँधे पर मेरा बेटा थिरकता है~

अगर माँ की अयादत को कभी मैं गाँव जाता हूँ,
सफ़र के वास्ते माँ चंद सिक्के दे ही देती है~

करिश्मा है कि जिस बेटे के घर माँ रहने लगती है,
दुआ बरकत से उस घर की कमाई बढ़ने लगती है~

अगर माँ शह्र आती है तो मैंने ये भी देखा है,
मुसल्सल घर में मेहमानों की आमद होती रहती है~

बस इतनी बात पर माँ शहर आने को नहीं राज़ी,
अगर वो गाँव छोड़ेगी तो तुलसी सूख जायेगी~

फ़लक से सायबाँ की क्या भला उसको ज़रूरत है,
ज़ईफ़ी में भी जिस बेटे के सर पे माँ का साया हो~

चमेली गाय माँ को देखकर अक्सर रँभाती है,
कि माँ बछड़े की ख़ातिर दूध थन में छोड़ देती है।

अभी तक कारगर है माँ की हिकमत नींद लाने में,
कहानी सात परियों की, महल के सात दरवाज़े~

किसी भी शाह का सारा ख़ज़ाना हेच लगता है,
वो माँ का एक सिक्का मुझको मेलेे के लिए देना~

बशर की छोड़िये सरकारे दो आलम ने परखा है,
दवा से कुछ न हो माँ की दुआ तब काम आती है।

मेरी नज़रों में वो कमज़र्फ है बदबख़्त किफाऱ है,
जो माँ के दूध को भी क़ऱ्ज कह क़ीमत लगाता है~

सजा हो लाख दस्तरख़्वान छप्पन भोग से लेकिन,
किसी लुक्मे से माँ के हाथ की ख़ुश्बू नहीं आती।

ग़ज़ब का ज़ायका था माँ तेरी बूढ़ी उँगलियों में,
जतन से हर निवाले को मुअत्तर घी से तर करना~

अगर दो चार दिन के वास्ते माँ शहर आती है,
रवादारी रिवायत, गाँव की सब साथ लाती है~

महज़ पल भर में तन जाता है सर पे माँ तेरा आँचल,
मुसीबत में जो साया साथ मेरा छोड़ देता है।

बलायें आ तो जाती हैं मेरी दहलाह़ज तक अक्सर,

मगर वो माँ का आँचल, चूमकर बस लौट जाती हैं~

About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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