है बात वक़्त वक़्त की,चलने की शर्त है
साया कभी तो क़द के बराबर भी आएगा
ऐसी तो कोई बात तसव्वुर में भी न थी
कोई ख़्याल आपसे हट कर भी आएगा
मैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
सोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा
अश्क बहने दे यूँ ही
लज्ज़ते ग़म कम न कर
अजनबियत भी बरत
फासला भी कम न कर
पी के कुछ राहत मिले
ज़हर को मरहम न कर
इश्क़ की मार बड़ी दर्दीली, इश्क़ में जी न फँसाना जी
सब कुछ करना इश्क़ न करना, इश्क़ से जान बचाना जी
वक़्त न देखे, उम्र न देखे, जब चाहे मजबूर करे
मौत और इश्क़ के आगे लोगो, कोई चले न बहाना जी
इश्क़ की ठोकर, मौत की हिचकी, दोनों का है एक असर
एक करे घर घर रुसवाई, एक करे अफ़साना जी
इश्क़ की नेमत फिर भी यारो, हर नेमत पर भारी है
इश्क़ की टीसें देन ख़ुदा की, इश्क़ से क्या घबराना जी
इश्क़ की नज़रों में सब यकसां, काबा क्या बुतख़ाना क्या
इश्क़ में दुनिया उक्बां क्या है, क्या अपना बेगाना जी
राह कठिन है पी के नगर की, आग पे चल कर जाना है
इश्क़ है सीढ़ी पी के मिलन की, जो चाहे तो निभाना जी
'तर्ज़' बहुत दिन झेल चुके तुम, दुनिया की ज़ंजीरों को
तोड़ के पिंजरा अब तो तुम्हें है देस पिया के जाना जी
इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की
त्याग, चाहत, प्यार, नफ़रत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की
किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब माँगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नई ज़ंजीर
एक ज़रा दिल के करीब आओ तो कुछ चैन पड़े
जाम को जाम से टकराओ तो कुछ चैन पड़े
दिल उलझता है नग़मा-ओ-मय रंगीं सुनकर
गीत एक दर्द भरा गाओ तो कुछ चैन पड़े
बैठे बैठे तो हर मौज से दिल दहलेगा
बढ़के तूफ़ान से टकराओ तो कुछ चैन पड़े
दाग़ के शेर जवानी में भले लगते हैं
मीर की कोई ग़ज़ल गाओ तो कुछ चैन पड़े
याद-ए-अय्याम-गुज़िश्ता से इजाज़त लेकर
'तर्ज़' कुछ देर को सो जाओ तो कुछ चैन पड़े
मुझे दे के मय मेरे साक़िया मेरी तिश्नगी को हवा न दे
मेरी प्यास पर भी तो कर नज़र मुझे मैकशी की सज़ा न दे
मेरा साथ अय मेरे हमसफ़र नहीं चाहता है तो जाम दे
मगर इस तरह सर-ए-रहगुज़र मुझे हर कदम पे सदा न दे
मेरा ग़म न कर मेरे चारागर तेरी चाराजोई बजा मगर
मेरा दर्द है मेरी ज़िन्दगी मुझे दर्द-ए-दिल की दवा न दे
मैं वहां हूँ अब मेरे नासेहा की जहाँ खुशी का गुज़र नहीं
मेरा ग़म हदों से गुज़र गया मुझे अब खुशी की दुआ न दे
वो गिराएं शौक़ से बिजलियाँ ये सितम करम है सितम नहीं
के वो 'तर्ज़' बर्क-ए-ज़फ़ा नहीं जो चमक ने नूर-ए-वफ़ा न दे
सपने मिलन के मिल के तो काफ़ूर हो गए
इतना हुए क़रीब कि हम दूर हो गए
जिन क़ायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
कोनों में काँपते थे अँधेरे जो आज तक
सूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए
'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख़्म अब कहाँ कहाँ रहे नासूर हो गए
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