तुम ज़रा प्यार की राहों से गुज़र कर देखो
अपने ज़ीनों से सड़क पर भी उतर कर देखो
धूप सूरज की भी लगती है दुआओं की तरह
अपने मुर्दार ज़मीरों से उबर कर देखो
तुम हो ख़ंजर भी तो सीने में समा लेंगे तुम्हें
प’ ज़रा प्यार से बाँहों में तो भर कर देखो
मेरी हालत से तो ग़ुरबत का गुमाँ हो शायद
दिल की गहराई में थोड़ा-सा उतर कर देखो
मेरा दावा है कि सब ज़हर उतर जायेगा
तुम मेरे शहर में दो दिन तो ठहर कर देखो
इसकी मिट्टी में मुहब्बत की महक आती है
चाँदनी रात में दो पल तो पसर कर देखो
कौन कहता है कि तुम प्यार के क़ाबिल ही नहीं
अपने अन्दर से भी थोड़ा-सा सँवर कर देखो
नफ़रत की आग जब भी कहीं से गुज़र गई
एक कायनात अम्न की जल कर बिखर गई
जो थे चमन के फूल वो शोलों में ढल गए
जन्नत है जो ज़मीं की फ़सादों में घिर गई
हम बेलिबास हो गए तहज़ीब के बग़ैर
पहचान वो हमारी तलाशो किधर गई
जिस शहर का निज़ाम हो क़ातिल के हाथ में
उस शहर की अवाम तो बेमौत मर गई
लीडर हमारे देश के नासूर बन गए
क़ुर्बानियाँ अवाम की सब बेअसर गईं
जो लेके फिर रहे हैं हथेली पे आबरू
ज़िन्दा हैं वो तो क्या है अगर शर्म मर गई
‘आज़ाद’ जी रहे हैं ग़ुलामों की ज़िन्दगी
मुर्दा ज़मीर लोगों की क़िस्मत सँवर गई
मयस्सर हमें कोई ऐसा जहाँ हो
जहाँ दाना-पानी हो इक आशियाँ हो
तरसते हुए हम कहीं मर न जाएँ
कभी ज़िन्दगी का हमें भी गुमाँ हो
गिरे आशियाने शजर कट रहे हैं
हमारे भी सर पर कोई सायबाँ हो
जहाँ पास रह कर हैं सब अजनबी-से
मिले कोई अपना कोई हमज़बाँ हो
फ़सादों से सारा चमन जल न जाए
यहाँ प्यार का कोई दरिया रवाँ हो
परिन्दे तो उड़ते हैं ‘आज़ाद’ हर सू
हमारी ही ख़ातिर हदें क्यूँ यहाँ हो
उम्र बस नींद-सी पलकों में दबी जाती है
ज़िन्दगी रात-सी आँखों में कटी जाती है
वो लरजती हुई इक याद की ठण्डी-सी लकीर
क्यों मेरे ज़हन में आती है चली जाती है
मैं तो वीरान-सा खंडहर हूँ बयाबाँ के क़रीब
दूर तक रोज़ मेरी चीख़ सुनी जाती है
देख सूखे हुए पत्तों का सुलगना क्या है
आग हर सिम्त से जंगल में बढ़ी जाती है
उफ अँधेरे की तड़प देख सुराखों के क़रीब
किस तरह धूप भी चेहरों पे मली जाती है
जैसे दिलकश है बहुत डूबता सूरज ऐ ‘अज़ीज़’
यूँ ही हर शाम तेरी उम्र ढली जाती है
मैं इन्साँ हूँ मगर शैतान से पंजा लड़ाता हूँ
जहाँ मैं पाँव रखता हूँ वहीं फ़ितने उठाता हूँ
मेरे जैसा भी क्या खूँखार कोई जानवर होगा
मुझे जो प्यार करता है उसी को काट खाता हूँ
मेरी हस्ती दिखावा है छलावा ही छलावा है
मैं दिल में ज़हर रखता हूँ लबों से मुस्कराता हूँ
मेरा मज़हब तो मतलब है मस्जिद और मन्दिर क्या
मेरा मतलब निकलते ही ख़ुदा को भूल जाता हूँ
मेरे जीने का ज़रिया हैं सभी रिश्ते सभी नाते
मेरे सब काम आते हैं मैं किस के काम आता हूँ
मेरी पूजा-इबादत क्या सभी कुछ ढोंग है यारो
फ़क़त जन्नत के लालच में सभी चक्कर चलाता हूँ
मुझे रहबर समझते हो तुम्हारी भूल है ‘आज़ाद’
मुझे मिल जाए मौक़ा तो वतन को बेच खाता हूँ
जिस्म में जाँ की तरह मैंने बसाया तुमको
अपने एहसास की परतों में समाया तुमको
ख़ुश्क मिट्टी हूँ मिले प्यार की हलकी-सी नमी
ये ही उम्मीद लिए अपना बनाया तुमको
तुम मिले जब भी ज़माने की हवा बन के मिले
मैंने हर बार ही बदला हुआ पाया तुमको
मुझ से यूँ बच के निकलते हो गुनाह हूँ जैसे
मेरा साया भी कभी रास न आया तुमको
तेरी ख़ुशबू को हवा बन के बिखेरा मैंने
जाने दिल रूहे-चमन मैंने बनाया तुमको
दौरे-गर्दिशे के ये झोंके न रुलादें ऐ ‘अज़ीज़’
मैंने हर मोड़ पे बाँहों में छुपाया तुमको
लब तरसने लगे हैं हँसी के लिए
कैसी लानत है ये इस सदी के लिए
आदमी आदमी से रहे अजनबी
लोग ज़िन्दा हैं फिर किस ख़ुशी के लिए
हर सुब्ह है सिसकती हुई शाम-सी
रूह बेचैन है रोशनी के लिए
अब तो सूरज निकलता है जैसे कोई
ग़मज़दा चल दिया ख़ुदकुशी के लिए
हम मुहब्बत के क़ाबिल नहीं न सही
इक बहाना सही दिल्लगी के लिए
ऐसी दुनिया में जीना है गर ऐ ‘अज़ीज़’
प्यार लाज़िम है इस ज़िन्दगी के लिए
दिल का दर्द ज़बाँ पे लाना मुश्किल है
अपनों पे इल्ज़ाम लगाना मुश्किल है
बार-बार जो ठोकर खाकर हँसता है
उस पागल को अब समझाना मुश्किल है
दुनिया से तो झूठ बोल कर बच जाएँ
लेकिन ख़ुद से ख़ुद को बचाना मुश्किल है
पत्थर चाहे ताज़महल की सूरत हो
पत्थर से तो सर टकराना मुश्किल है
जिन अपनों का दुश्मन से समझौता है
उन अपनों से घर को बचाना मुश्किल है
जिसने अपनी रूह का सौदा कर डाला
सिर उसका ‘आज़ाद’ उठाना मुश्किल है
मुझे कैसी नज़र से देखता है
मेरा होना भी जैसे हादसा है
हमारे दर्द का चेहरा नहीं है
उसे तू यार कब पहचानता है
मेरे उजड़े मकाँ के आईने में
तेरा चेहरा ही अक्सर झाँकता है
मुझे देकर वो थोड़ा-सा दिलासा
वो मुझ से आज क्या-क्या माँगता है
जिसे कहते हैं सारे लोग वहशी
हक़ीक़त में वो कोई दिलजला है
कोई आवाज़ बेमानी नहीं है
हवा ने कुछ तो पत्तों से कहा है
हमें ‘आज़ाद’ कहता है ज़माना
मगर ये तंज भी कितना बड़ा है
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