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» » संजय मिश्रा 'शौक' (दिल के पन्ने ) Sanjay Mishra 'souk' (Dil ke Panne )






गरीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है
वो बिरहा में झुलसते जिस्म पर चन्दन लगाती है

महकती है बदन में उसके हिन्दुस्तान की खुशबू
कि वो तालाब की मिट्टी से जब उबटन लगाती है

जवानी देखती है खुद को रुसवाई के दर्पण में
फिर अपने आप पर दुनिया के सब बंधन लगाती है

कुंवारी चूड़ियों की दूर तक आवाज आती है
वो जब चौका लगती है, वो जब बासन लगाती है

उदासी में तेरी यादों की चादर ओढ़कर अक्सर
मेरी तन्हाई अपनी आँख में आंजन लगाती है

कभी तो आईना देखे तेरे दिल में भरी नफरत
हमेशा दूसरों के वास्ते दरपन लगाती है




कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के
लाया हूँ इनसे फिक्र के मोती निकाल के

हमने भी ढूंढ ली है जमीं आसमान पर
रखना है हमको पाँव बहुत देखभाल के

बच्चा दिखा रहा था मुझे जिन्दगी का सच
कागज़ की एक नाव को पानी में डाल के

उम्मीद के दिए में भरा सांस का लहू
जंगल सा एक ख्वाब का आँखों में पाल के

बुझते हुए दीयों को पिलाया है खूने-दिल
मिलते कहाँ हैं लोग हमारी मिसाल के





दर्दे-दिल जान का आजार है मैं जानता हूँ
और अल्लाह मददगार है मैं जानता हूँ

मंजरे-सुब्ह शफकजार है मैं जानता हूँ
ये तुम्हारा रूखे-अनवार है मैं जानता हूँ

मैं बिना कलमा पढ़े भी तो मुसलमां ठहरा
हाँ मेरे दोश पे जुन्नार है मैं जानता हूँ

एक-इक हर्फ़ महकने लगा फूलों की तरह
ये तेरी गर्मी-ए-गुफ्तार है मैं जानता हूँ

ढूँढते हैं मेरी आँखों में तुझे शहर के लोग
तेरा मिलना भी तो दुश्वार है मैं जानता हूँ

रेहन रक्खे जो मेरी कौम के मुस्तकबिल को
वो मेरी कौम का सरदार है मैं जानता हूँ




खुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं
जब इक कमरे में हम कागज़ की फुलवारी बनाते हैं

गज़ल के वास्ते इपनी जमीं हम किस तरह ढूंढें
जमीनों के सभी नक़्शे तो पटवारी बनाते हैं

तलाशी में उन्हीं के घर निकलती है बड़ी दौलत
जो ठेकेदार हैं और काम सरकारी बनाते हैं

इन्हें क्या फर्क पड़ता है कोई आए कोई जाए
यही वो लोग हैं जो राग-दरबारी बनाते हैं

जरूरत फिर हवस के खोल से बाहर निकल आई
कि अब माली ही खुद गुंचों को बाजारी बनाते हैं.




नख्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं
घर जो हम खाना-बदोशों को नज़र आ गए हैं

भूक ने कर दिए हैं मेरी अना के टुकडे
सिर्फ चंदा नहीं तारे भी नज़र आ गए हैं

तू जो बिछड़ा था तो फिर तेज हुई थी धड़कन
फिर मुझे याद तेरे दीद-ए-तर आ गए हैं

फ़ायदा कुछ तो हुआ है तेरी सोहबत का मुझे
सोच के जिस्म में उम्मीद के पर आ गए हैं

मक्तले -जां का नज़ारा है बहुत ही दिलसोज
देखते-देखते आखों में शरर आ गए हैं


अजमतों के बोझ से घबरा गए
सर उठाया था कि ठोकर खा गए

ले तो आए हैं उन्हें हम राह पर
हाँ, मगर दांतों पसीने आ गए

भूख इतनी थी कि अपने जिस्म से
मांस खुद नोचा, चबाया, खा गए

कैदखाने से रिहाई यूं मिली
हौसले जंजीर को पिघला गए

बज गया नक्कारा-ए-फ़तहे-अजीम
जंग से हम लौट कर घर आ गए

इक नई उम्मीद के झोंके मेरे
पाँव के छालों को फिर सहला गए

उन बुतों में जान हम ने डाल दी
दश्ते-तन्हाई में जो पथरा गए.

छीन ली जब ख्वाहिशों की ज़िन्दगी
पाँव खुद चादर के अंदर आ गए




About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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