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» » फ़राग़ रोहवी (दिल के पन्ने ) Faragh Rohvi ( Dil ke Panne )






कहीं सूरज कहीं ज़र्रा चमकता है
इशारे से तिरे क्या क्या चमकता है

फ़लक से जब नई किरनें उतरती हैं
गुहर सा शबनमी क़तरा चमकता है

उसे दुनिया कभी दरिया नहीं कहती
चमकने को तो हर सहरा चमकता है

सितारा तो सितारा है मिरे भाई
कभी तेरा कभी मेरा चमकता है

मिरी मैली हथेली पर तो बचपन से
ग़रीबी का खरा सोना चमकता है

मशक़्क़त की बदौलत ही जबीनें पर
पसीने का हर इक क़तरा चमकता है

क़रीने से तराशा ही न जाए तो
किसी पहलू कहाँ हीरा चमकता है

ये क्या तुरफ़ा-तमाशा है सियासत का
कहीं ख़ंजर कहीं नेज़ा चमकता है

तसव्वुर में ‘फ़राग़’ आठों पहर आब तो
कोई चेहरा ग़ज़ल जैसा चमकता है

देखा जो आईना तो मुझे सोचना पड़ा
ख़ुद से न मिल सका तो मुझे सोचना पड़ा

उस का जो ख़त मिला तो मुझे सोचना पड़ा
अपना सा वो लगा तो मुझे सोचना पड़ा

मुझ को था ये गुमाँ कि मुझी में है इक अना
देखी तिरी अना तो मुझे सोचना पड़ा

दुनिया समझ रही थी कि नाराज़ मुझ से है
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

सर को छुपाऊँ अपने कि पैरों को ढाँप लूँ
छोटी सी थी रिदा तो मुझे सोचना पड़ा

इक दिल वो मेरे ऐब गिनाने लगा ‘फ़राग़’
जब ख़ुद ही थक गया तो मुझे सोचना पड़ा

हमारे साथ उम्मीद-ए-बहार तुम भी करो
इस इंतिज़ार के दरिया को पार तुम भी करो

हवा का रूख़ तो किसी पल बदल भी सकता है
उस एक पल का ज़रा इंतिज़ार तुम भी करो

मैं एक जुगनू अंधेरा मिटाने निकला हूँ
रिदा-ए-तीरा-शबी तार तार तुम भी करो

तुम्हारा चेहरा तुम्हीं हू-ब-हू दिखाऊँगा
मैं आईना हूँ मिरा ए‘तिबार तुम भी करो

ज़रा सी बात पे क्या क्या न खो दिया मैं ने
जो तुम ने खोया है उस का शुमार तुम भी करो

मिरी अना तो तकल्लुफ़ में पाश पाश हुई
दुआ-ए-ख़ैर मिरे हक़ में यार तुम भी करो

अगर मैं हाथ मिलाऊँ तो ये ज़रूरी है
कि साफ़ सीने का अपने ग़ुबार तुम भी करो

कोई ज़रूरी नहीं है कि बस की तरह ‘फ़राग़’
ज़माने वाली रविश इख़्तियार तुम भी करो

कभी न सोचा था मैं ने उड़ान भरते हुए
कि रंज होगा ज़मीं पर मुझे उतरते हुए

ये शौक़-ए-ग़ोता-ज़नी तो नया नहीं फिर भी
उतर रहा हूँ मैं गहराइयों में डरते हुए

हवा के रहम-ओ-करम पर चराग़ रहने दो
कि डर रहा हूँ नए तजरबात करते हुए

न जाने कैसा समुंदर है इश्क़ का जिस में
किसी को देखा नहीं डूब के उभरते हुए

मैं उस घराने का चश्म ओ चराग़ हूँ जिस की
हयात गुज़री है ख़्वाबों में रंग भरते हुए

मैं सब से मिलता रहा हँस के इस तरह कि मुझे
किसी ने देखा नहीं टूटते बिखरते हुए

‘फ़राग़’ ऐसे भी इंसान मैं ने देखे हैं
जो सच की राह में पाए गए हैं मरते हुए

मैं एक बूँद समुंदर हुआ तो कैसे हुआ
ये मोजज़ा मिरे अंदर हुआ तो कैसे हुआ

ये भेद सब पे उजागर हुआ तो कैसे हुआ
कि मेरे दिल में तिरा घर हुआ तो कैसे हुआ

न चाँद ने किया रौशन मुझे न सूरज ने
तो मैं जहाँ में मुनव्वर हुआ तो कैसे हुआ

न आस-पास चमन है न गुल-बदन कोई
हमारा कमरा मोअŸार हुआ तो कैसे हुआ

ज़रा सी बात पे इक ग़म-गुसार के आगे
मैं अपने आपे से बाहर हुओ तो कैसे हुआ

सुलगते सहरा मे तूफ़ाँ का सामना था मुझे
ये मारका जो हुआ सर हुआ तो कैसे हुआ

वो जंग हार के मुझ से ये पूछता है कि मैं
बग़ैर तेग़ मुज़फ़्फ़र हुआ तो कैसे हुआ

सुना है अम्न-परस्तों का वो इलाक़ा है
वहीं शिकार कबूतर हुआ तो कैसे हुआ

About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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