वो अब तिजारती पहलू निकाल लेता है
मैं कुछ कहूं तो तराजू निकाल लेता है
वो फूल तोड़े हमें कोई ऐतराज़ नहीं
मगर वो तोड़ के खुशबू निकाल लेता है,
अँधेरे चीर के जुगनू निकालने का हुनर
बहुत कठिन है मगर तू निकाल लेता है,
मैं इसलिए भी तेरे फ़न की क़द्र करता हूँ,
तू झूठ बोल के आंसू निकाल लेता है,
वो बेवफाई का इज़हार यूं भी करता है,
परिंदे मार के बाजू निकाल लेता है
ये गर्म रेत ये सहराजंगल, मैदान, रेगिस्तान निभा के चलना है
सफ़र तवीललम्बा है पानी बचा के चलना है
बस इस ख़याल से घबरा के छँट गए सब लोग
ये शर्त थी के कतारें बना के चलना है
वो आए और ज़मीं रौंद कर चले भी गए
हमें भी अपना ख़साराहानि, क्षति, नुक़सान भुला के चलना है
कुछ ऐसे फ़र्ज़ भी ज़िम्मे हैं ज़िम्मेदारों पर
जिन्हें हमारे दिलों को दुखा के चलना है
शनासापरिचित, जानकार, वाक़िफ़ ज़हनों पे ताने असर नहीं करते
तू अजनबी है तुझे ज़हर खा के चलना है
वो दीदावरपारखी, जौहरी हो के शायर या मसखरा कोई
यहाँ सभी को तमाशा दिखा के चलना है
वो अपने हुस्न की ख़ैरातदान देने वाले हैं
तमाम जिस्म को कासाभिक्षापात्र
बना के चलना है
जो चोट दे गए उसे गहरा तो मत करो
हम बेवक़ूफ़ हैं, कही चर्चा तो मत करो
माना के तुमने शहर को सर कर लिया मगर
दिल जा नमाज़ है इसे रस्ता तो मत करो
बा-इख्तियार-ए- शहर-ए-सितम हो ये शक नहीं
लेकिन खुदा नहीं है ये दावा तो मत करो
बर्दाश्त कर लिया चलो बारीक पैराहन
पर इसको जान करके भिगोया तो मत करो
तामीर का जूनून मुबारक तुम्हें मगर ,
कारीगरों के हाथ तराशा तो मत करो
ग़रीब-ए-शहर का सर है के शहरयार का है
ये हम से पूछ के ग़म कौन सी कतार का है
किसी की जान का न मसला सहकार का है
यहाँ मुकाबला पैदल से शहसवार का है
ऐ आब-ओ-ताब-ए-सितम मशक क्यूँ नहीं करता
हमें तो शौक़ भी सेहरा-ए-बेहिसार का है
यहाँ का मसला मिटटी की आबरू का नहीं
यहाँ सवाल ज़मीनों पे इख्तियार का है
वो जिसके दर से कभी ज़िन्दगी नहीं देखी
ये आधा चाँद उसी शहर-ए-यादगार का है
ये ऐसा ताज है जो सर पे खुद पहुँचता है
इसे ज़मीन पे रख दो ये खाकसार का है
ये उसके बाद है तहरीर क्या निकलती है
अभी सवाल तो अपने पे इख्तियार का है
No comments: