इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं
अब उसे ऐसे ही समझाता हूँ मैं
कुछ हवा कुछ दिल धड़कने की सदा
शोर में कुछ सुन नहीं पाता हूँ मैं
बिन कहे आऊँगा जब भी आऊँगा
मुन्तज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं
याद आती है तेरी संजीदगी
और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं
फासला रख के भी क्या हासिल हुआ
आज भी उसका ही कहलाता हूँ मैं
वार पर वार कर रहा हूँ मैं
कुछ जियादा ही दर गया हूँ मैं
रास्ते भर नहीं खुला मुझ पर
ये कि इतना थका हुआ हूँ मैं
वक़्त की गहरी खाई है नीचे
और किनारे ही पे खड़ा हूँ मैं
अजनबीयत की है फ़ज़ा हर सू
आइनों के लिए नया हूँ मैं
उफ़ उदासी ये मेरी आँखों की
किस क़दर झूठ बोलता हूँ मैं
तंज़ तो दूसरे भी करते हैं
सिर्फ उससे ही क्यूँ ख़फ़ा हूँ मैं
No comments: