इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो
रुख़-ए-ज़ेबा की लताफ़त को बढाया न करो
दर्द ओ आज़ार का तुम मेरे मुदावा न करो
रहने दो अपनी मसीहाई का दावा न करो
हुस्न के सामने इज़हार-ए-तमन्ना न करो
इश्क़ इक राज़ है इस राज़ को इफ़्शा न करो
अपनी महफ़िल में मुझे ग़ौर से देखा न करो
मैं तमाशा हूँ मगर तुम तो तमाशा न करो
सारी दुनिया तुम्हें कह देगी तुम्हीं हो क़ातिल
देखो मुझ को ग़लत अंदाज़ से देखा न करो
कैसे मुमकिन है के हम दोनों बिछड़ जाएँगे
इतनी गहराई से हर बात को सोचा न करो
तुम पे इल्ज़ाम न आ जाए सफ़र में कोई
रास्ता कितना ही दुश्वार हो ठहरा न करो
वो कोई शाख़ हो मिज़राब हो या दिल हो 'अज़ीज़'
टूटने वाली किसी शै का भरोसा न करो
हर जगह आप ने मुमताज़ बनाया है मुझे
वाक़ई क़ाबिल-ए-एज़ाज़ बनाया है मुझे
जिस पर मर मिटने की हर एक क़सम खाता है
वही शोख़ी वही अंदाज़ बनाया है मुझे
वाक़ई वाक़िफ़-ए-इदराक-ए-दो-आलम तुम हो
तुम ने ही वाक़िफ़-ए-हर-राज़ बनाया है मुझे
जिस फ़साने का अभी तक कोई अंजाम नहीं
उस फ़साने का ही आग़ाज़ बनाया है मुझे
कभी नग़मा हूँ कभी धुन हूँ कभी लै हूँ 'अज़ीज़'
आप ने कितना हसीं साज़ बनाया है मुझे
आख़िर-ए-शब वो तेरी अँगड़ाई
कहकशाँ भी फलक पे शरमाई
आप ने जब तवज्जोह फ़रमाई
गुलशन-ए-ज़ीस्त में बहार आई
दास्ताँ जब भी अपनी दोहराई
ग़म ने की है बड़ी पज़ीराई
सजदा-रेज़ी को कैसे तर्क करूँ
है यही वजह-ए-इज़्ज़त-अफ़ज़ाई
तुम ने अपना नियाज़-मंद कहा
आज मेरी मुराद बर आई
आप फ़रमाइए कहाँ जाऊँ
आप के दर से है शनासाई
उस की तक़दीर में है वस्ल की शब
जिस ने बर्दाश्त की है तन्हाई
रात पहलू में आप थे बे-शक
रात मुझ को भी ख़ूब नींद आई
मैं हूँ यूँ इस्म-ब-मुसम्मा 'अज़ीज़'
वारिश-ए-पाक का हूँ शैदाई
No comments: