कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं
मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं
देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली
ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली
कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली
एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में
मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली
चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली
तू परेशान है, तू परेशान न हो
इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली
परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं
तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं
मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं
हमारे हाथ तो काटे गए थे
हमारे पाँव भी छोले हुए हैं
कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
सियासत के कई चोले हुए हैं
हमारा क़द सिमट कर मिट गया है
हमारे पैरहन झोले हुए हैं
चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
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