मेरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा
गिरा दिया है तो साहिल पे इंतिज़ार न कर
अगर वो डूब गया है तो दूर निकलेगा
उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़
हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा
यक़ीं न आए तो इक बात पूछ कर देखो
जो हँस रहा है वो ज़ख़्मों से चूर निकलेगा
उस आस्तीन से अश्कों को पोछने वाले
उस आस्तीन से ख़ंजर ज़रूर निकलेगा
जाने ये किस की बनाई हुई तस्वीरें हैं
ताज सर पर हैं मगर पाँव में ज़ंजीरें हैं
क्या मेरी सोच थी क्या सामने आया मेरे
क्या मेरे ख़्वाब थे क्या ख़्वाब की ताबीरें हैं
कितने सर है के जो गर्दन-ज़दनी हैं अब भी
हम के बुज़-दिल है मगर हाथ में शमशीरें हैं
चार जानिब हैं सियह रात के साए लेकिन
उफ़ुक़-ए-दिल पे नई सुब्ह की तनवीरें हैं
उस की आँखों को ख़ुदा यूँ ही सलामत रक्खे
उस की आँखों में मेरे ख़्वाब की ताबीरें हैं
हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझ को ख़ुदा देता था
नेकियाँ कर के मैं दरिया में बहा देता था
था उसी भीड़ में वो मेरा शनासा था बहुत
जो मुझे मुझ से बिछड़ने की दुआ देता था
उस की नज़रों में था जलता हुआ मंज़र कैसा
ख़ुद जलाई हुई शम्मों को बुझा देता था
आग में लिपटा हुआ हद्द-ए-नज़र तक साहिल
हौसला डूबने वालों का बढ़ा देता था
याद रहता था निगाहों को हर इक ख़्वाब मगर
ज़ेहन हर ख़्वाब की ताबीर भुला देता था
क्यूँ परिंदों ने दरख़्तों पे बसेरा न किया
कौन गुज़रे हुए मौसम का पता देता था
उन की बे-रुख़ी में भी इल्तिफ़ात शामिल है
आज कल मेरी हालत देखने के क़ाबिल है
क़त्ल हो तो मेरा सा मौत हो तो मेरी सी
मेरे सोग-वारों में आज मेरा क़ातिल है
हर क़दम पे ना-कामी हर क़दम पे महरूमी
ग़ालिबन कोई दुश्मन दोस्तो में शामिल है
मुज़्तरिब हैं मौज़ूँ क्यूँ उठ रहे हैं तूफ़ाँ क्यूँ
क्या किसी सफ़ीने को आरज़ू-ए-साहिल है
सिर्फ़ राह-ज़न ही से क्यूँ ‘अमीर’ शिकवा हो
मंज़िलों की राहों में राह-बर भी हाइल है
यकुम जनवरी है नया साल है
दिसंबर में पूछूँगा क्या हाल है
बचाए ख़ुदा शर की ज़द से उसे
बे-चारा बहुत नेक-आमाल है
बताने लगा रात बूढ़ा फ़क़ीर
ये दुनिया हमेशा से कंगाल है
है दरिया में कच्चा घड़ा सोहनी
किनारे पे गुमसुम महिवाल है
मैं रहता हूँ हर शाम शिकवा-ब-लब
मेरे पास दीवान-ए-'इक़बाल' है
वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे
मैं आख़िरी चराग़ था जलना पड़ा मुझे
महसूस कर रहा था उसे अपने आस पास
अपना ख़याल ख़ुद ही बदलना पड़ा मुझे
सूरज ने छुपते छुपते उजागर किया तो था
लेकिन तमाम रात पिघलना पड़ा मुझे
मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू थी मेरी ख़ामुशी कहीं
जो ज़हर पी चुका था उगलना पड़ा मुझे
कुछ दूर तक तो जैसे कोई मेरे साथ था
फिर अपने साथ आप ही चलना पड़ा मुझे
नज़र में हर दुश्वारी रख
ख़्वाबों में बेदारी रख
दुनिया से झुक कर मत मिल
रिश्तों में हम-वारी रख
सोच समझ कर बातें कर
लफ़्ज़ों में तह-दारी रख
फ़ुटपाथों पर चैन से सो
घर में शब-बेदारी रख
तू भी सब जैसा बन जा
बीच में दुनिया-दारी रख
एक ख़बर है तेरे लिए
दिल पर पत्थर भारी रख
ख़ाली हाथ निकल घर से
ज़ाद-ए-सफ़र हुश्यारी रख
शेर सुना और भूखा मर
इस ख़िदमत को जारी रख

Waaah lajawaaaaab!!!!
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