Header ads

» » अहमद महफूज़ (दिल के पन्ने ) Ahmed Mahfooz (Dil ke Panne )






नहीं आसमाँ तेरी चाल में नहीं आऊँगा
मैं पलट के अब किसी हाल में नहीं आऊँगा

मेरी इब्तिदा मेरी इंतिहा कहीं और है
मैं शुमार-ए-माह-ओ-साल में नहीं आऊँगा

अभी इक अज़ाब से है सफ़र इक अज़ाब तक
अभी रंग-ए-शाम-ए-ज़वाल में नहीं आऊँगा

वही हालतें वही सूरतें हैं निगाह में
किसी और सूरत-ए-हाल में नहीं आऊँगा

मुझे क़ैद करने की ज़हमतें न उठाइए
नहीं आऊँगा किसी जाल में नहीं आऊँगा

मैं ख़याल ओ ख़्वाब हिसार से भी निकल चुका
सो किसी के ख़्वाब ओ ख़याल में नहीं आऊँगा

न हो बद-गुमाँ मेरी दाद-ख़्वाही-ए-हिज्र से
मेरी जाँ मैं शौक़-ए-विसाल में नहीं आऊँगा


अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
ये काम सहल बहुत है मगर नहीं करना

ज़रा ही देर में क्या जाने क्या हो रात का रंग
सो अब क़याम सर-ए-रह-गुज़र नहीं करना

बयाँ तो कर दूँ हक़ीक़त उस एक रात की सब
पे शर्त ये है किसी को ख़बर नहीं करना

रफ़ू-गरी को ये मौसम है साज़-गार बहुत
हमें जुनूँ को अभी जामा दर नहीं करना

ख़बर है गर्म किसी क़ाफ़िले के लुटने की
ये वाक़िया है तो सैर ओ सफ़र नहीं करना


अँधेरा सा क्या था उबलता हुआ
के फिर दिन ढले ही तमाशा हुआ

यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ

न देखो तुम इस नाज़ से आईना
के रह जाए वो मुँह ही तकता हुआ

न जाने पस-ए-कारवाँ कौन था
गया दूर तक मैं भी रोता हुआ

कभी और कश्ती निकालेंगे हम
अभी अपना दरिया है ठहरा हुआ

जहाँ जाओ सर पर यही आसमाँ
ये ज़ालिम कहाँ तक है फैला हुआ


बदन सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है
तो फिर ये ख़्वाब-किनारा कहाँ से मिलता है

ये धूप छाँव सलामत रहे के तेरा सुराग़
हमें तो साया-ए-अब्र-ए-रवाँ से मिलता है

हम अहल-ए-दर्द जहाँ भी हैं सिलसिला सब का
तुम्हारे शहर के आशुफ़्तगाँ से मिलता है

जहाँ से कुछ न मिले तो भी फ़ाएदे हैं बहुत
हमें ये नक़्द इसी आस्ताँ से मिलता है

फ़ज़ा ही सारी हुई सुर्ख़-रू तो हैरत क्या
के आज रंग-ए-हवा गुल-रुख़ाँ से मिलता है

बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
ग़ुबार जा के उसी कारवाँ से मिलता है

यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
गहराई में क्यूँ न उतर कर देखा जाए

तेज़ हवाएँ याद दिलाने आई हैं
नाम तेरा फिर रेत पे लिख कर देखा जाए

शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अंदर देखा जाए के बाहर देखा जाए

गाती मौज़ूँ शाम ढले सो जाएँगी
बाद में साहिल पहले समंदर देखा जाए

सारे पत्थर मेरी ही जानिब उठते हैं
उन से कब 'महफ़ूज़' मेरा सर देखा जाए



ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
फिर कोई फूल हो के पत्थर हो

मैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े में
रात गुज़रे तो मारका सर हो

फिर ग़नीमों से बे-ख़बर है सिपाह
फिर अक़ब से नुमूद लश्कर हो

क्या अजब है के ख़ुद ही मारा जाऊँ
और इल्ज़ाम भी मेरे सर हो

हैं ज़मीं पर जो गर्द-बाद से हम
ये भी शायद फलक का चक्कर हो

उस को ताबीर हम करें किस से
वो जो हद-ए-बयाँ से बाहर हो

देखना ही जो शर्त ठहरी है
फिर तो आँखों में कोई मंज़र




About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
«
Next
Newer Post
»
Previous
Older Post

No comments:

Leave a Reply