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» » अहमद मुश्ताक़ (दिल के पन्ने ) Ahamad Mushtak (Dil ke Panne )




ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना
ये अलग बात के मुमकिन नहीं ऐसा होना

देखता और न ठहरता तो कोई बात भी थी
जिस ने देखा ही नही उस से ख़फ़ा क्या होना

तुझ से दूरी में भी ख़ुश रहता हूँ पहले की तरह
बस किसी वक़्त बुरा लगता है तन्हा होना

यूँ मेरी याद में महफ़ूज़ हैं तेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल
जिस तरह दिल में किसी शय की तमन्ना होना

ज़िंदगी मारक-ए-रूह-ओ-बदन है मुश्ताक़
इश्क़ के साथ ज़रूरी है हवस का होना


अब मंज़िल-ए-सदा से सफ़र कर रहे हैं हम
यानी दिल-ए-सुकूत में घर कर रहे हैं हम

खोया है कुछ ज़रूर जो उस की तलाश में
हर चीज़ को इधर से उधर कर रहे हैं हम

गोया ज़मीन कम थी तग-ओ-ताज़ के लिए
पैमाइश-ए-नुजूम-ओ-क़मर कर रहे हैं हम

काफ़ी न था जमाल-ए-रुख़-ए-साद-ए-बहार
ज़ेबाइश-ए-गियाह-ओ-शजर कर रहे हैं हम



अब वो गलियाँ वो मकाँ याद नहीं
कौन रहता था कहाँ याद नहीं

जलवा-ए-हुस्न-ए-अज़ल थे वो दयार
जिन के अब नाम ओ निशाँ याद नहीं

कोई उजला सा भला सा घर था
किस को देखा था वहाँ याद नहीं

याद है ज़ीन-ए-पेचाँ उस का
दर-ओ-दीवार-ए-मकाँ याद नहीं

याद है ज़मज़मा-ए-साज़-ए-बहार
शोर-ए-आवाज़-ए-ख़िज़ाँ याद नहीं


चमक दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय
सिवाए शाख़-ए-तमन्ना हरी नहीं कोई शय

दिल-ए-गुदाज़ ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर के बग़ैर
ये इल्म ओ फ़ज़्ल ये दानिश्वरी नहीं कोई शय

तो फिर ये कशमकश-ए-दिल कहाँ से आई है
जो दिल-गिरफ़्तगी ओ दिलबरी नहीं कोई शय

अजब हैं वो रुख़ ओ गेसू के सामने जिन के
ये सुब्ह ओ शाम की जादूगरी नहीं कोई शय

मलाल-ए-साया-ए-दीवार-ए-यार के आगे
शब-ए-तरब तेरी नीलम-परी नहीं कोई शय

जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
ये वो जहाँ है जहाँ सरसरी नहीं कोई शय

तेरी नज़र की गुलाबी है शीशा-ए-दिल में
के हम ने और तो उस में भरी नहीं कोई शय



दिलों की ओर धुआँ सा दिखाई देता है
ये शहर तो मुझे जलता दिखाई देता है

जहाँ के दाग़ है याँ आगे दर्द रहता था
मगर ये दाग़ भी जाता दिखाई देता है

पुकारती हैं भरे शहर की गुज़र-गाहें
वो रोज़ शाम को तन्हा दिखाई देता है

ये लोग टूटी हुई कश्तियों में सोते हैं
मेरे मकान से दरिया दिखाई देता है

ख़िज़ाँ के ज़र्द दिनों की सियाह रातों में
किसी का फूल सा चेहरा दिखाई देता है

कहीं मिले वो सर-ए-राह तो लिपट जाएँ
बस अब तो एक ही रस्ता दिखाई देता है


मिल ही जाएगा कभी दिल को यक़ीं रहता है
वो इसी शहर की गलियों में कहीं रहता है

जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तेरे
ऐ मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता हैं

इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे
और अब कोई कहीं कोई कहीं रहता है

रोज़ मिलने पे भी लगता था के जग बीत गए
इश्क़ में वक़्त का अहसास नहीं रहता है

दिल फ़सुर्दा हुआ देख के उस को लेकिन
उम्र भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है


About dil ke panne

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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