पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" (दिल के पन्ने ) Aazar (Dil ke Panne )
दिलों में सभी के , मोहब्बत जगा दें
भुला दें ,भुला दें , गमों को भुला दें
तुफानों का रुख मोड़ दें तुम कहो तो
समंदर कि लहरों, को झुकना सिखा दें
न तुम पूछो उनकी अदाओं का आलम
वो जुल्फ़ों को झटकें यूं बिजली गिरा दें
हवा दरमियाँ से न गुज़रे ज़रा भी
यूँ जिस्मों को हम दोनो इतना सटा दें
लबों पे मेरे तुम लबों को सजा दो
हया कि दिवारों को मिल कर गिरा दें
सदा साथ रहने कि खाओ कसम तुम
हकीकत में हम खुद कि दुनिया लुटा दें
मोहब्बत से हमको पुकारो तो" आज़र"
तुम्हारे लिय अपनी हस्ती मिटा दें
किसको फुर्सत है दुनिया में कौन बुलाने आएगा
बात -बात पे रुठोगे तो कौन मनाने आएगा
जब भी मैं आवाज़ हूँ देता आनाकानी करते हो
मेरे बाद बता दो तुमको कौन बुलाने आएगा
गंगा जी को माँ कहते सब जल भी गंदा करते हैं
पाप धुलेंगे कैसे यारो कौन नहाने आएगा
इस बस्ती को छोड़ चला मैं तू जाने और तेरा काम
सांकल तेरे दरवाज़े की कौन बजाने आएगा
इन अंधियारी गलियों को इक मैं ही रौशन करता था
दिन ढलते ही दीपक "आज़र" कौन जलाने आएगा
समझेगा कौन हमको इतना ज़रा बता दो
किस बात पे हैरां हो इतना ज़रा बता दो
देखा है जब से तुमको दिल तुम पे आ गया है
जाएं तो किस जहां को इतना ज़रा बता दो
हमसे ख़फ़ा न होंगे वादा किया था तुमने
ख़ामोश क्यूं हुए हो इतना ज़रा बता दो
कहना है जितना आसां मुश्किल है क्य़ूं निभाना
हम पूछते हैं तुमको इतना ज़रा बता दो
ख़ामोश हैं निगाहें गुमसुम सी क्यूं तुम्हारी
"आज़र" ज़रा सा ठहरो, इतना ज़रा बता दो
ज़रा सा पास आओ तो , नज़र को भी नज़र आए
है कितनी रात यह काली, कहीं बिजली चमक जाए
मुहब्बत है अगर सच्ची, तो उसको नाम क्या देना
जिधर भी सांस लोगे तुम, हवा ख़ुशबू सी महकाए
लिखेगें नाम अपना हम, समुंदर की यूं लहरो पे
न आँधी ही, तूफाँ कोई, न बारिश ही मिटा पाए
किसी शायर के अच्छे शेर पे, जब दाद मिलती है
कली सिमटी हुई जैसे, चमन में फ़ूल बन जाए
मना लेंगे तुम्हे"आज़र",ख़फ़ा किस बात से हो तुम
सुना है जब तलक है जाँ, न होते हैं जुदा साए
फ़ुर्सत के पल निकाल कर, मिलता ही कौन है
अपनो में अपना दोस्तों, अपना ही कौन है
अरसा गुज़र गया, हमें ख़ुद से मिले हुए
इक हमख़याल आज-कल, मिलता ही कौन है
दिन भर रहे वो साथ यह कोशिश तमाम की
सूरज के जैसा,शाम तक, ढलता ही कौन है
नंगे बदन को ढांप दे, ग़ुरबत की जात को
चादर भी इस मिज़ाज़ से, बुनता ही कौन है
जो भी मिला है हमसफ़र, राहों में रह गया
धूमिल पथों पे साथ अब, चलता ही कौन है
मेरा ज़नूने-शौक है, या हद है प्यार की
तेरे बिना सूनी लगे, रौनक बहार की
आते नहीं हैं वो कभी, महफ़िल में वक़्त से
आदत सी हमको पड़ गई है इंतज़ार की
सूरज ढला, तो आसमाँ की, रुत बदल गई
पक्षी कहानी लिख गए, अपनी कतार की
माना कि शोभा रखता है, कैक्टस का फ़ूल भी
लेकिन चुभन, महसूस की है, मैंने ख़ार की
कुछ भी कहूं या चुप रहूं आफ़त में जान है
रस्सी भी "आज़र" बट चुकी गर्देन पे दार की
वो ख्वाब था बिखर गया ,ख़याल था मिला नहीं
मगर ये दिल को क्या हुआ, ये क्यूँ बुझा पता नहीं
सकूंन का पता नहीं वो हल कभी मिला नहीं
कि तन से तन भी जुड़ गए क्यूं दिल से दिल जुड़ा नहीं
अजीब जिंदगी रही , जो रौशनी न पा सकी
लहू जिगर का भी दिया ,मगर दिया जला नहीं
पढ़ा जो खत सकूं मिला, लिखा था हाल-ए-दिल मेरा
जवाब में मैं क्या लिखूं ,यूँ खत कभी लिखा नहीं
जुबाँ न उसकी कह सकी ,नज़र ने सब वो कह दिया
मगर वो राज़ ही रहा , कहीं कभी खुला नहीं
लो आफ़ताब ढल गया, है शाम सिर पे आ गई
तेरा पता कहाँ से लूँ यूँ खुद का भी पता नहीं
न किसी का घर उजड़ता , न कहीं गुबार होता
सभी हमदमों को ऐ दिल, जो सभी से प्यार होता
ये वचन ये वायदे सब, कभी तुम न भूल पाते
जो यकीन मुझपे होता, मेरा एतिबार होता
मैं मिलन की आरज़ू को, लहू दे के सींच लेता
ये गुलाब जिंदगी का, जो सदा बहार होता
कोई डर के झूठ कहता, न ही सत्य को छिपाता
जो स्वार्थ जिंदगी का, न गले का हार होता
मैं खुद अपनी सादगी में ,कभी हारता न बाज़ी
तेरी बात मान लेता, जो मैं होशियार होता
ज़माना क्यूं उसे कहता भला है
अगर वो आदमी इतना बुरा है
नगर में आग बरसी ही नहीं तो
धुआं आखिर उठा तो क्यूं उठा है
उजाले उसको ही रौशन हैं करते
हमेशा जो अंधेरो से लड़ा है
तेरी तस्वीर जब भी देखता हूं
मुझे लागता है मेरा तू खुदा है
पता घर का न पूछा नाम उसका
ये चिठ्ठी कौन"आज़र" दे गया है
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